चाहे 19वीं सदी का दौर हो या आज का दौर, गढ़वाल राइफल्स के जांबाजों ने कभी भारत का भाल झुकने नहीं दिया। प्रथम विश्व युद्ध में गढ़वाल राइफल्स के जांबाजों ने पूरे विश्व में भारत की वीरता का परचम लहराया था। उन्हीं में से एक थे दरबान सिंह नेगी। जिनके रणकौशल,शौर्य,वीरता और अदम्य साहस के आगे दुनिया की सबसे बड़ी महाशक्ति ब्रिटेन के महाराजा जॉर्ज पंचम भी नतमस्तक हो गए थे और खुद रणभूमि में जा कर उन्होंने दरबान सिंह नेगी को विक्टोरिया क्रॉस से नवाजा था। दरबान सिंह नेगी की वीरता के किस्से पूरे विश्व की सेनाओं के लिए आज भी प्रेरणादायक है। तो चलिए जानते हैं उनके बारे में और भी बहुत कुछ….
सेना की जिंदगी ने डाला गहरा प्रभाव
विक्टोरिया क्रॉस दरबान सिंह नेगी उत्तराखंड चमोली गढ़वाल के काफरतीर गांव के रहने वाले थे। 4 मार्च 1883 को जन्में दरबान सिंह के पिता का नाम कलम सिंह नेगी था । दरबान सिंह 3 बहनों और दो भाइयों में दूसरे नम्बर के थे। बचपन से ही दरबान सिंह नेगी ने लोगों से सेना की वीरता की कहानियां सुनी थी। सेना की जिंदगी ने दरबान सिंह नेगी के मन पर गहरा प्रभाव डाला और वह महज 19 साल की उम्र में 39 गढ़वाल राइफल्स में बतौर राइफल मैन भर्ती हो गए।
प्रथम विश्व युद्ध में शामिल होने का बुलावा
28 जुलाई 1914 को जब प्रथम विश्व युद्ध शुरू हुआ तब भारत में ब्रिटेन का शासन था। उस समय दरबान सिंह नेगी 39वीं गढ़वाल राइफल्स की पहली बटालियन में नायक पद पर तैनात थे। 9 अगस्त 1914 को ब्रिटिश सरकार की तरफ से गढवाल रेजिमेंट को विश्व युद्ध में लडने का बुलावा आया और बांकुरे युद्ध के लिए निकल पडे। जहां इस रेजीमेंट को प्रथम विश्व युद्ध के यूरोपियन फ्रंट में शामिल होने के लिये फ़्रांस पहुंचना था।
प्रथम विश्व युद्ध होने के अलग-अलग कारण
दरअसल प्रथम विश्व युद्ध को 1914 तक हुई अलग-अलग घटनाओं और कारणों का परिणाम माना जाता है। लेकिन इस युद्ध का तात्कालिक कारण ऑस्ट्रिया-हंगरी साम्राज्य के उत्तराधिकारी आर्चडयूक फर्डिनेंड और उनकी पत्नी की सेराजेवो में हुई हत्या को ही माना जाता है। ऑस्ट्रिया ने इस हत्याकांड के लिए सर्बिया को दोषी मानकर 28 जुलाई 1914 को सर्बिया पर आक्रमण कर दिया। जिसके बाद इस युद्ध में विश्वभर के देश शामिल होते गए ।
दरबान सिंह ने दुश्मनों को खदेड़ा
फेस्टुर्बट में 23-24 नवंबर 1914 को गढवाल रेजिंमेंट और जर्मन सैनिको के बीच जंग छिड़ गई।इस पलटन में दरबान सिंह नेगी सबसे आगे थे। दुश्मन की ओर से ताबड़तोड़ गोलियां दागी जा रही थीं। इस दौरान दो बार उनका सिर भी जख्मी हो गया था और गोलियों से छलनी बांह से खून की धार बह रही थी। लेकिन दरबान सिंह हर मोड़ पर दुश्मनों की गोलीबारी का सामना करते हुए आगे बढते रहे और आखिरकार उन्होंने दुश्मनों को खदेड़ कर ही दम लिया।
गढ़वाल रेजिमेंट की ख्याति विश्व में फैली
बता दें कि जिन इलाकों पर ब्रिटेन के सैनिक अपना हक खो बैठे थे गढवाल रेजिमेंट ने जर्मन सैनिकों से वो इलाके छीन लिए। इस दौरान दरबान सिंह के कई साथी घायल हुए और कई शहीद हो गए थे। इस युद्ध मे जिस दिलैरी से दरबान सिंह लड़े थे उनकी वीरता और पराक्रम को देख हर कोई हैरान था। अकेले ही एक गढ़वाली जर्मन सेना पर भारी पड गया था। दरबान सिंह नेगी के अदम्य शौर्य की चारों और प्रशंसा होने लगी और गढ़वाल रेजिमेंट की ख्याति विश्व में फैल गयी।
सैन्य परंपरा में बड़े फक्र से होता है जिक्र
प्रथम विश्व युद्ध में दुनियाभर की फौजें शामिल थीं, लेकिन इनमें भारतीय सैनिकों के साहस और वीरता ने पूरी दुनिया में एक अलग छाप छोड़ी। यही वजह थी कि जब फ्रांस में ब्रिटिश सैन्य टुकड़ियों के बीच दीवार बनी जर्मन सेना को कोई हिला नहीं पा रहा था, तब गढ़वाल के नायक दरबान सिंह नेगी के नेतृत्व वाली ब्रिटिश-भारतीय सेना ने रातोंरात इस दीवार को ढहा दिया। आज भी सैन्य परंपरा में इस घटना का जिक्र बड़े फक्र से किया जाता है।
सर्वोच्च सम्मान विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित
प्रथम विश्व युद्ध में दरबान सिंह नेगी के अभूतपूर्व रणकौशल, शौर्य ,वीरता, अदम्य साहस को देख कर 5 दिसम्बर 1914 को किंग जॉर्ज पंचम ने प्रोटोकॉल को तोड़ते हुए युद्ध के मैदान में खुद जाकर दरबान सिंह नेगी को सर्वोच्च सम्मान विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित किया था। यह एक ऐतिहासिक क्षण था। जब दरबान सिंह नेगी इस वीरता पुरस्कार को पाने वाले पहले भारतीय बने।
सात समुद्र पार खुले शिक्षा और रेल विकास के दरवाजे
जार्ज पंचम दरबान सिंह नेगी से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने उनसे दो चीजें मांगने को कहा। तब दरबान सिंह नें अपने क्षेत्र कर्णप्रयाग में एक इंग्लिश मीडियम स्कूल और दूसरा हरिद्वार-ऋषिकेश से कर्णप्रयाग तक रेलवे लाइन बिछवाने की मांग जार्ज पंचम के सामनें रखी। यह दोनों मांगें फ्रांस की धरती पर ही किंग जॉर्ज पंचम ने स्वीकार कर ली और इस तरह समुद्र पार वार मेमोरियल स्कूल कर्णप्रयाग और रेल का जन्म हुआ।
आज भी लैंसडाउन में दरबान सिंह के अदम्य साहस की दास्तान
प्रथम विश्व युद्ध से लौटने के बाद भी दरबान सिंह नेगी ने 18 साल तक सेना में अपनी सेवाएं दी। और 1923 में सूबेदार के पद से सेवानिवृत्त हो गए। सेवानिवृत्त के बाद भी दरबान सिंह नेगी ने अपना पूरा जीवन अपने गृहक्षेत्र के युद्ध में घायल लोगों, शहीद सैनिकों की विधवाओं की सेवा के लिए समर्पित कर दिया । वे जीवन की आखिरी सांस तक अपने पैतृक गाँव कफारतीर में ही रहे। और 24 जून 1950 को विक्टोरिया क्रॉस दरबान सिंह नेगी सबको इस दुनिया से अलविदा कह गए। दरबान सिंह ने अपने निधन से पहले विक्टोरिया क्रॉस पदक को अपनी रेजीमेंट के सुर्पुद कर दिया था। जो आज भी 39वें गढ़वाल राइफल्स अधिकारी मेस, जीआरआरसी लैंसडाउन में दरबान सिंह के अदम्य साहस की दास्तान सुनाता है।