उत्तराखंड में पांच जनजातियां मूल रूप से निवास करती हैं। इनमें से एक जनजाति वनराजी जनजाति है। जिसकी जनसंख्या सबसे कम और पिछड़ी है। यह जनजाति जंगलों में रहने वाली जनजाति है जिन्होंने अपनी पीढ़ी गुफाओं में बिताई है। हालांकि अब धीरे-धीरे इनका रहन सहन तो अन्य लोगों जैसा होने लगा है, लेकिन अभी भी यह जनजाति विकास की मुख्यधारा से कोसों दूर है।
पिथौरागढ़ जिले में सबसे ज्यादा आबादी
वनराजी जनजाति उत्तराखंड के अंतरराष्ट्रीय सीमा पर स्थित पिथौरागढ़ और चम्पावत जिले के दूरस्थ जंगलों के बीच बसे गांवों में रहते हैं। इस के अलावा नेपाल के पश्चिम अंचल में भी इनके कुछ छोटे गांव बसे हैं। हालांकि इनकी सर्वाधिक आबादी पिथौरागढ़ जिले में ही है। जहां पर डीडीहाट, धारचूला और कनालीछीना विकासखंडों में इनके करीब आठ-दस गांव हैं।
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मूल सुविधाओं से कोसो दूर है वनराजी जनजाति
वनराजी जनजाति की महिला पदमा देवी ने अपनी समस्याओं से अवगत कराते हुए बताया कि वह लोग स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार से काफी दूर है। सरकारी योजना का लाभ लेने के लिए भी उनके पास कोई सरकारी कागज भी नहीं है। खेती करने लायक जमीन भी उनके पास नहीं है। पांच जनजातियों में से सबसे कम जनसंख्या वाली इस जनजाति के संरक्षण के लिए तमाम संगठन प्रयास कर रहे हैं।
अर्पण संस्था ने किया शोध
बता दें कि ग्रामीण योजना और कार्रवाई संघ (अर्पण) नामक एक गैर-सरकारी संस्था ने रोजा लक्जमबर्ग स्टिफ्टंग की दक्षिण एशियाई इकाई के सहयोग से जनजाति की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक कमजोरियों को समझने के लिए एक सर्वेक्षण किया और इस जनजाति के लोगों को सशक्त बनाने के कई सुझाव भी दिए ताकि वे सुरक्षित और सम्मानजनक जीवन व्यतीत कर सकें।
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जनजाति में बचे सिर्फ 1500 लोग
इन पर हुए शोध के अनुसार इस जनजाति के लोगों की औसत आयु 50 से 55 साल है। पिथौरागढ़ जिले में करीब 1500 लोग ही इस जनजाति में हैं। साक्षरता दर भी इस जनजाति के लोगों में काफी कम है, जिस वजह से सरकार ने इन्हें सरकारी नौकरी में विशेष आरक्षण तो दे रखा है, लेकिन उसका फायदा भी इन्हें नहीं मिल पाता है, और सरकार की तमाम जनकल्याणकारी योजनाएं भी यहां धरातल पर कम ही दिखाई देती हैं।
आधुनिक युग मे भी आदम युग में ही जी रहे लोग
इनके संरक्षण के लिए काम कर रही अर्पण संस्था की कार्यकर्ता खिमा जेठा ने बताया कि रोजगार का न होना ही इस जनजाति के लोगों के पतन का मुख्य कारण है। वनराजी जनजाति के तमाम परिवारों को अभी तक आरक्षित जनजाति का सर्टिफिकेट भी नहीं मिल पाया है, जिस कारण सरकार की जितनी भी योजनाएं इस जनजाति के लोगों के लिए चली हुई है। उनका लाभ इन्हें नहीं मिल पाता है। आधुनिक युग मे भी इस जनजाति के लोग आदम युग में ही जी रहे हैं।