जै दिन त्योर-म्यरो नि होलो,एक दिन तो आलो,उ दिन यो दुनी में..जनगीतों के महारथी थे “गिर्दा”

घुनन मुनई नि टेक

जैंता एक दिन तो आलो, उ दिन यो दुनी में 

जै दिन कठुलि रात ब्यालि

पौ फाटला को कड़ालो ता एक दिन तो आलो, उ दिन यो दुनी में …

Girish Tiwari death anniversary 2023: उत्तराखंड आंदोलन के जनकवि गिरीश तिवारी गिर्दा की पुण्यतिथि है। आज ही के दिन गिर्दा 2010 में दुनिया को अलविदा कह गए थे। आंदोलनों में सक्रिय होकर कविता करने और कविता की पंक्तियों में जन-मन को आन्दोलित करने की ऊर्जा भरने का उनका अलग ही अंदाज था। दरअसल गिर्दा सिर्फ कवि नहीं थे, वे जनकवि थे। उनके पास सिर्फ पाठक नहीं थे, स्रोता भी थे जो उन्हें उनकी आवाज में ही सुनते समझते थे। भले ही आज गिर्दा हमारे बीच नहीं हैं। लेकिन उनकी कविताएं आज भी लोगों को पहाड़ों से जोड़ती हैं।

गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’ का जीवन परिचय 

गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’ का जन्म 10 सिंतबर 1945 को अल्मोड़ा जिले के हवालबाग ब्लॉक में ज्योली गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम सादत्त तिवारी और माता का नाम जीवंती देवी था। उनकी आरंभिक शिक्षा अल्मोड़ा से हुई थी। जबकि उन्होंने 12वीं की परीक्षा नैनीताल से पूरी की।तत्कालीन संस्कृति कर्मी, रंगकर्मी मोहन उप्रेती और बृजेन्द्र लाल शाह इनके प्रेरणा स्त्रोत बने।

जै दिन नान ठुलो नि रौलो जै दिन त्योर-म्यरो नि होलो

जैंता एक दिन तो आलो, उ दिन यो दुनी में 

चाहे हम नि ल्यै सकूं

चाहे तुम निल्यै सो

मगर क्वे न क्वेत ल्यालो, उ दिन यो दुनी में..

आजीविका के लिए चलाया रिक्शा 

पढ़ाई पूरी करने के बाद गिरीश तिवारी गिर्दा, घर से निकल कर पीलीभीत चले गए। उसके बाद वो बरेली और फिर लखनऊ में रहे। उन्होंने अलीगढ़ में रिक्शा चलाने काम भी किया। इस दौरान उनकी मुलाकात कुछ वामपंथी मजदूर संगठनों से हुई। वहीं से इनको गरीबो और वंचितों को समझने और जानने का मौका मिला।

कुमाऊंनी कविताओं का संग्रह था ‘शिखरों के स्वर’ 

लखनऊ में जन संघर्षों से जुड़े रहने के साथ उन्होंने 1967 में गीत और नाटक प्रभाग में नौकरी की। यहीं से लखनऊ आकाशवाणी जाना शुरू हुआ। इसके बाद गिर्दा ने खुद कविताएं लिखना शुरू किया। साल 1968 में गिर्दा ने ‘शिखरों के स्वर’ किताब को प्रकाशित किया। जो कि कुमाऊंनी कविताओं का संग्रह था। जिसके बाद उन्होंने कई किताबें और नाटक भी लिखे।

उत्तराखंड मेरी मातृभूमि, मातृभूमि यो मेरी पितृभूमि ,

ओ भूमि तेरी जय जय कारा… म्यर हिमाला

ख्वार में कूट तेरो ह्युं झलको ,

छलकी गाड़ गंगा की धारा… म्यर हिमाला

उत्तराखंड मेरी मातृभूमि… मातृभूमि मेरी पितृभूमि

लाउडस्पीकर लगाकर बन जाते थे‘चलता फिरता रेडियो’ 

वह 1977 में वन आन्दोलन को प्रोत्साहित करने के लिए ‘हुड़का’ बजाते हुए सड़क पर आंदोलनकारियों के साथ कूद पड़े। उत्तराखंड आंदोलन के दौरान भी गिर्दा कंधे में लाउडस्पीकर लगाकर ‘चलता फिरता रेडियो’ बन जाया करते थे और प्रतिदिन शाम को नैनीताल में तल्लीताल डांठ पर आंदोलन से जुड़े ताजा समाचार सुनाते थे। उनका व्यक्तित्व बहुआयामी व विराट प्रकृति का था। कमजोर और पिछड़े तपके की जनभावनाओं को स्वर प्रदान करना गिर्दा की कविताओं का मुख्य उद्देश्य था।

“कुछ नहीं बदला कैसे कहूँ, दो बार नाम बदला-अदला,

उत्तराखंड राज्य आन्दोलन से अपना नया राज्य हासिल करने पर उसके बदलाव को व्यंग्यपूर्ण लहजे में बयाँ करते हुए गिर्दा कुछ इस अंदाज से कहते हैं-

“कुछ नहीं बदला कैसे कहूँ, दो बार नाम बदला-अदला, चार-चार मुख्यमंत्री बदले, पर नहीं बदला तो हमारा मुकद्दर, और उसे बदलने की कोशिश तो हुई ही नहीं।”

 लोकगायक नेगी दा के साथ गिर्दा की जुगलबंदी

गिर्दा ने अपने जीवन में समय समय पर वन, शराब और राज्य आंदोलन को अपने गीतों तथा आवाज से जीवंत किया था। प्रसिद्ध लोकगायक नरेन्द्र सिंह नेगी के साथ की गई गिर्दा की जुगलबंदी ने देश में ही नहीं, अपितु विदेशों में भी ख्याति दिलाई। राज्य निर्माण से ठीक पहले उनका लिखा गीत —

“कस होलो उत्तराखण्ड, कां होली राजधानी, राग-बागी यों आजि करला आपुणि मनमानी, यो बतौक खुली-खुलास गैरसैंण करुंलो। हम लड़्ते रयां भुली, हम लड़्ते रुंल॥

साहित्य जगत में अपना बहुमूल्य योगदान दिया

बहुप्रतिभा के धनी गिरीश चंद्र तिवारी ‘गिर्दा’ उत्तराखंड राज्य के एक बहुचर्चित पटकथा लेखक, निर्देशक, गीतकार, गायक, कवि, संस्कृति एवं प्रकृति प्रेमी, साहित्यकार और आंदोलनकारी थे यानी संस्कृति का कोई आयाम उनसे से छूटा नहीं था। उन्होंने हिंदी, कुमाउनी, गढ़वाली में गीत लिखे हैं, जिनमें उत्तराखंड आंदोलन, चिपको आंदोलन, झोड़ा, चांचरी, छपेली व जागर आदि के माध्यम से समाज को परिवर्तित करने पर बल दिया गया है।

नाटकों का भी सफल निर्देशन किया 

गिर्दा ने नाटकों के निर्देशन में भी अपना हाथ आजमाया और ‘नगाड़े खामोश हैं, धनुष यज्ञ, अंधायुग, अंधेर नगरी चौपट राजा’ आदि नाटकों का सफल निर्देशन किया। नगाड़े खामोश हैं और धनुष यज्ञ स्वयं गिर्दा द्वारा रचित नाटक हैं। वे हमेशा समाज में सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक रूप से सक्रिय रहे थे।